डिजिटल डेस्क ( नई दिल्ली ):-
नई दिल्ली या फिर भारत देश के किसी भी राज्य , शहर , या गाँव में जब बच्चे 12 th पास करते हैं तब अमूमन सब के परिवारों में एक ही समस्या से सामना होता है की बच्चों से आगे क्या करवाएं ? 12th तक माता पिता अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल्स में पढ़ा पढ़ा कर पहले ही अपनी आमदनी का काफी हिस्सा इन प्राइवेट स्कूल्स को भेंट कर चुके होते हैं बिना ये जाने की ये शिक्षा आपके बच्चों को कुछ सीखा भी रही है या नहीं|
सरकारी स्कूलों का तो मध्यम वर्गीय परिवार्रों में नाम लेना ही पाप माना जाता है , अगर बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ता है तो सोसाइटी आपको ऑटोमॅटिकली BPL श्रेणी में डाल देगी, इसी सोच से मध्यम वर्गीय परिवार डरता है और यही सोच इंडियन एजुकेशन सिस्टम के स्पाइडर वेब की सबसे बड़ी ताकत है |
12th तक सरकारी स्कूल में किसी को पढ़ना नहीं क़्योंकि व्यवस्था ही बिगाड़ दी गई है , अब ये जानबूझ के किया गया है या नहीं ये हम सब जानते हैं , खुद को ही अँधेरे में रख के कोई फायदा नहीं | भारतीय शिक्षा प्रणाली ( इंडियन एजुकेशन सिस्टम) दुनिया की एकमात्र ऐसी व्यवस्था है जहाँ आपको एजुकेशन लोन नाम की डायन की गोद में बैठने के लिये प्रेरित किया जाता है|
The print में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2020 से 2024 के बीच भारत में मध्यमवर्गीय परिवारों द्वारा अपने बच्चों की उच्च शिक्षा की लिये अलग अलग बैंको से जो एजुकेशन लोन लिया गया उसका आंकड़ा 65000 करोड़ से बढ़कर 1,30,000 करोड़ हो गया है|
यह लोन देने में कोई भी बैंक मना नहीं करता है क्योंकि इसके एब्ज में आपको बैंक के पास अपनी कोई न कोई प्रॉपर्टी गिरवी रखनी पड़ती है , चाहे वो जमीन हो या गहने हो या फिर लोन अमाउंट की बराबर वैल्यू की कोई प्रॉपर्टी ताकि अगर आप लोन वापिस नहीं कर पाए तो बैंक आपकी गिरवी रखे हुई प्रॉपर्टी को नीलाम कर सके |
इसके अलावा बैंक आपसे लोन अमाउंट पर 9-12 % तक व्याज भी वसूल करता है | इतना सब कुछ करने की बाद भी कोई गारंटी नहीं होती की आप के द्वारा की गयी मेहनत आपको 100 प्रतिशत फल रिटर्न करेगी ही, यहाँ पर एजुकेशन सिस्टम सब किस्मत का खेल है बोल कर अपने आप को बचा लेता है |
12th साइंस में पास करने वाले बच्चों पर सबसे ज्यादा प्रेशर iit-jee या नीट का एग्जाम निकालने पर होता है , यहाँ पर हम बच्चों के माता पिता पर अपने बच्चों की क्षमता को न पहचाने का आरोप भी लगा सकते हैं लेकिन उनके पास खुद ही ज्यादा ऑप्शंस नहीं होते हैं की वो अपने बच्चों से क्या करवाएं |
इसी इंडियन एजुकेशन सिस्टम की स्पाइडर वेब का फयदा उठाते हुऐ न जाने कितने कोचिंग इंस्टीटूएस खुल गये जो हर साल इन एक्साम्स के रिजल्ट्स आने पर शहर को कोई कोना नहीं छोड़ते की इनके इंस्टिट्यूट से 10-20 बच्चे सेलेक्ट हो गये, लेकिन वो ये कभी नहीं बताते की इन 10-20 बच्चों के पीछे 10 – 20 हजार बच्चे रह भी गये हैं , उनका कोई जिक्र नहीं होता है|
राज्यस्थान का एक फेमस शहर कोटा जो अपने कोचिंग इंस्टीटूट्स के लिये ही फेमस है और जहाँ पूरे भारत से बच्चे दसवीं के बाद पढ़ने आते हैं ऐसे ही सुसाइड कैपिटल ऑफ़ इंडिया नहीं बना | भारत में 1990 के बाद से ही शिक्षा का privatization शुरू हो गया था और उसके साथ ही शिक्षा के गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ भी शुरू हो गया |
एक ओर जहाँ विकसित राष्ट्रों में शिक्षा बेसिक humen राइट के तहत स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटीज तक फ्री होने के साथ साथ गुणवत्तापूर्ण भी होती है तथा बचपन से ही बच्चों के सम्पूर्ण विकास को ध्यान में रख कर ही डिज़ाइन के गए होती है , इसका लाभ ये होता है की जब बच्चे बड़े होते हैं तो देश के लिये एक अच्छे नागरिक के भूमिका निभाते हैं |
खेलों की दुनिया से लेकर बिज़नेस की दुनिया तक, टेक्नोलॉजी की दुनिया से लेकर नई इन्वेंशंस के मोर्चों तक अगर हम अपने एजुकेशन सिस्टम को उनके एजुकेशन सिस्टम से तुलना करते हैं तो हम पाते हैं की हमे उपलब्ध करवाया गया सिस्टम बेहद ही घटिया स्तर का है |
हम खुद को नकली भ्र्म में रख कर खुश हो सकते हैं की अमेरिकन कंपनीज की सीईओ भारतीय मूल की होते हैं , जबकि इससे कुछ भी साबित नहीं होता है , पहली बात यहाँ से जो स्टूडेंट्स ग्रेजुएशन कर के बाहर जाते हैं वो पहले बाहर जाकर अपने पोस्ट ग्रेजुएशन वहां की univetrsities से करते हैं , उसके बाद वहां पर वो उनके सिस्टम में एम्पलॉईड होते हैं, फिर उनमे से 5-10 लोग एक लम्बा टाइम उन organisations में बिताने की बाद सीईओ बनते हैं , इसमें इसका श्रेय उन लोगों की मेहनत के साथ साथ उन देशों के सिस्टम को भी जाता है जहाँ वे लोग काम कर रहे होते हैं |
यहाँ पर हमारा विरोध मेहनती भारतीयों से नहीं हैं वे तो खुद को हर रोज साबित करते हैं , हमारा विरोध उस सड़े गले भद्दे सिस्टम से है जिसकी भेंट न जाने कितने भारत के सुपर माइंडस सुसाइड के रूप में चढ़ गए| हमारा विरोध उन लोगों से है जिनको जिम्मेबारी दी गई है की इस सिस्टम को ठीक करें लेकिन उन लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं है |
पिछले कुछ सालों से लगातार लीक हो रहे एक्साम्स हो या फिर प्राइवेट नौकरीयों में होने वाला मानसिक शोषण जिनमे कुछ बहुत फेमस सीईओ हफ्ते के सातों दिन से लेकर रोज 18 घंटे काम करने की वकालत कर रहे हों ( जिनमे सिर्फ काम के घंटे बढ़ाने की बात की गई है सैलरी बढ़ने की नहीं ) इनमें सिर्फ फयदा उन सीईओ का है एम्प्लाइज का नहीं |
वहीँ दूसरी ओर विकसित देशों में जहाँ हफ्ते में सिर्फ 4 दिन काम करने पर बात हो रही हो जिससे वहां पर वर्क लाइफ बैलेंस को मेन्टेन किया जा सके, हम सब इस से ही पता लगा सकते हैं की सिस्टम के लिये हमारी वैल्यू सिर्फ एक constituency में नंबर के रूप में ही है जिनके मरने पर सिर्फ उनके वोट में एक नंबर कम होगा|
litracy rate के हिसाब से भारत का सबसे अग्रणी राज्य केरल वहां पर अभी कुछ महीने पहले ही रोबोटिक्स शिक्षा को अनिवार्य किया गया है जिससे के बच्चे शुरू से ही भविष्य के लिये तैयार हो सकें इसे एक अच्छी पहल के रूप में देखा जा सकता है |